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कविता

कलेऊ

रेखा चमोली


आखिरी बस जा चुकी होगी
कोई दो घंटे पहले
आना होता तो
अब तक आ चुके होते
बाबा या बड़ा भाई
एक घंटे के पैदल पर ही तो है
उनका गाँव
दो महीने से लगातार
राह देख रही है वह
अब तो बच्चों से भी
कहते नहीं बनता कि
तुम्हारे नाना या मामा आएँगे
लाएँगे तुम्हारे लिए
कनस्तर भर अरसे, च्यूड़े
और भी कई सारी पोटलियाँ
बाँध कर देगी नानी
जिसमें होंगी थोड़ी-थोड़ी दालें
भट्ट, गहत, छेमी, उड़द
और होगी थोड़ी-सी
तुड़के के लिए फरण, हींग
माँ की पुरानी धोती से बनी
पोटलियाँ सँभाली रहती है उसने
कई दिनों तक
जब-जब खुद लगती उसे माँ की
उन्हीं में मुँह छिपा कर
रो लेती है थोड़ी देर
गाँव की सारी बहु-बेटियाँ
बाँट चुकी है कलेऊ
किसी ने अरसे बाँटे
तो किसी ने लड्डू, मठरी
अब तो उसकी सहेलियाँ भी नहीं पूछतीं
कब आएगा तेरा भाई?
सास ने भी सुनाना शुरू कर दिया है
मन कई आशंकाओं से
भर उठता है उसका
कहीं कुछ...।
कई दिनों से कोई रैबार भी तो
नहीं आया
ना... ना, सब ठीक होगा
वह मन ही मन मनौती माँगती
धार के ऊपर वाली देवी से
कमली के बापू घर होते तो
उन्हें ही भेजकर
कुशल-मंगल पुछवा लेती
हो सकता है भाई की दुकान पर
ज्यादा काम हो आजकल
और बाबा अब
ज्यादा चल-फिर भी नहीं सकते
वह सोचती जा रही है
और साथ ही साथ
करती जा रही है
घर के काम-काज
देखती जा रही है बार-बार
गाँव की ओर आने वाले रास्ते को।

 


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